Thursday 26 July 2012

अमीर खुसरो


 


खडी बोली हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो एक सूफीयाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थेइनका जन्म ईस्वी सन् 1253 में हुआ थाइनके जन्म से पूर्व इनके पिता तुर्क में लाचीन कबीले के सरदार थेमुगलों के जुल्म से घबरा कर इनके पिता अमीर सैफुद्दीन मुहम्मद हिन्दुस्तान भाग आए थे और उत्तरप्रदेश के ऐटा जिले के पटियाली नामक गांव में जा बसेइत्तफाकन इनका सम्पर्क सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के दरबार से हुआ, उनके साहस और सूझ-बूझ से ये सरदार बन गए और वहीं एक नवाब की बेटी से शादी हो गई और तीन बेटे पैदा हुए उनमें बीच वाले अबुल हसन ही अमीर खुसरो थेइनके पिता खुद तो खास पढे न थे पर उन्होंने इनमें ऐसा कुछ देखा कि इनके पढने का उम्दा इंतजाम कियाएक दिन वे इन्हें ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए जो कि उन दिनों के जाने माने सूफी संत थेतब इनके बालमन ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि वे यहाँ क्यों लाए गए हैं? तब पिता ने कहा कि तुम इनके मुरीद बनोगे और यहीं अपनी तालीम हासिल करोगे
उन्होंने पूछा -  मुरीद क्या होता है?

उत्तर मिला -  मुरीद होता है, इरादा करने वाला
ज्ञान प्राप्त करने का इरादा करने वाला
बालक अबुल हसन ने मना कर दिया कि उसे नहीं बनना किसीका मुरीद और वे दरवाजे पर ही बैठ गए, उनके पिता अन्दर चले गएबैठे-बैठे इन्होंने सोचा कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अगर ऐसे ही पहुँचे हुए हैं तो वे अन्दर
बैठे-बैठे ही मेरी बात समझ जाएंगे, जो मैं सोच रहा
हूँ।
और उन्होंने मन ही मन संत से पूछा कि  मैं अन्दर आऊं या बाहर से ही लौट जाऊं?
तभी अन्दर से औलिया का सेवक हाजिर हुआ और उसने इनसे कहा कि -
'ख्वाजा साहब ने कहलवाया है कि जो तुम अपने दिल में मुझसे पूछ रहे हो, वह मैं ने जान लिया है, और उसका जवाब यह है कि अगर तुम सच्चाई की खोज करने का इरादा लेकर आए हो तो अन्दर आ जाओ। लेकिन अगर तुम्हारे मन में सच्चाई की जानकारी हासिल करने की तमन्ना नहीं है तो जिस रास्ते से आए हो वापस चले जाओ।
फिर क्या था वे जा लिपटे अपने ख्वाजा के कदमों सेतब से इन पर काव्य और गीत-संगीत का नशा सा तारी हो गया और इन्होंने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया को अपना प्रिय मान अनेकों गज़लें और शेर कहेकई दरबारों में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाया और राज्य कवि बनेपर इनका मन तो ख्वाजा में रमता था और ये भटकते थे उस सत्य की खोज में जिसकी राह दिखाई थी ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने
एक बार की बात हैतब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थेतुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता थाखुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुजरती थीमगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिजाजबादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस दे दे कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड क़र चले जाएं
खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा?
'' कुछ नहीं खुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है।
सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गईरास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में ठहरा था, भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई
तभी से यह कहावत  अभी दिल्ली दूर है पहले खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई
छह वर्ष तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में भी रहे ये तब भी अलाउद्दीन खिलजी के करीब थे जब उसने चित्तौड ग़ढ क़े राजा रत्नसेन की पत्नी पद्मिनी को हासिल करने की ठान ली थीतब ये उसके दरबार के  खुसरु-ए-शायरा के खिताब से सुशोभित थेइन्होंने पद्मिनी को बल के जोर पर हासिल करने के प्रति अलाउद्दीन खिलजी का नजरिया बदलने की कोशिश की यह कह कर कि ऐसा करने से असली खुशी नहीं हासिल होगी, स्त्री हृदय पर शासन स्नेह से ही किया जा सकता है, वह सच्ची राजपूतानी जान दे देगी और आप उसे हासिल नहीं कर सकेंगेऔर अलाउद्दीन खिलजी ने खुसरो की बात मान ली कि हम युध्द से उसे पाने का इरादा तो तर्क करते हैं लेकिन जिसके हुस्न के चर्चे पूरे हिन्द में हैं, उसका दीदार तो करना ही चाहेंगे
तब स्वयं खुसरो पद्मिनी से मिलेशायर खुसरो के काव्य से परिचित पद्मिनी उनसे बिना परदे के मिलीं और उनका सम्मान कियारानी का हुस्न देख स्वयं खुसरो दंग रह गएफिर उन्होंने रानी को अलाउद्दीन खिलजी के बदले इरादे से वाकिफ कराया कि आप अगर युध्द टालना चाहें तो एक बार उन्हें स्वयं को देख भर लेने देंइस पर रानी का जवाब नकारात्मक था कि इससे भी उनकी आत्मा का अपमान होगाइस पर अनेकानेक तर्कों और राजपूतों की टूटती शक्ति और युध्द की संभावना के आपत्तिकाल में पडी रानी ने अप्रत्यक्षत: अपना चेहरा दर्पण के आगे ऐसे कोण पर बैठ कर अलाउद्दीन खिलजी को दिखाना मंजूर किया कि वह दूर दूसरे महल में बैठ कर मात्र प्रतिबिम्ब देख सकेकिन्तु कुछ समय बाद जब अलाउद्दीन खिलजी ने उनका अक्स आईने में देखा तो बस देखता ही रह गया, भूल गया अपने फैसले को, और पद्मिनी के हुस्न का जादू उसके सर चढ ग़या, इसी जुनून में वह उसे पाने के लिये बल प्रयोग कर बैठा और पद्मिनी ने उसके नापक इरादों को भांप उसके महल तक पहुँचने से पहले ही जौहर कर लिया था
इस घटना का गहरा असर अमीर खुसरो के मन पर पडाऔर वे हिन्द की संस्कृति से और अधिक जुड ग़एऔर उन्होंने माना कि अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना ही तो पहले हमें हिन्दवासियों के दिल में रहना होगा और इसके लिये पहली जरूरत है कि हम  हिन्दवी  सीखें  हिन्दवी  किसी तरह से अरबी-फारसी के मुकाबले कमतर नहींदिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली भाषा को ' हिन्दवी  नाम सबसे पहले खुसरो ने ही दिया थायही शब्द बाद में हिन्दी बना और यही तुर्की कवि हिन्दी का पहला कवि बना
ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया हर रोज ईशा की नमाज के बाद एकान्तसाधना में तल्लीन हो जाया करते थेऔर इस एकान्त में विघ्न डालने की अनुमति किसी शिष्य को न थी सिवाय खुसरो केऔलिया इन्हें जी जान से चाहते थेवे कहते - मैं और सब से ऊब सकता हूँ , हाँ तक कि अपने आप से भी उकता जाता हूँ कभी-कभी लेकिन खुसरो से नहीं उकता सकता कभीऔर यह भी कहा करते थे कि  तुम खुदा से दुआ मांगो कि मेरी उम्र लम्बी हो, क्योंकि मेरी जिंदगी से ही तेरी जिन्दगी जुडी हैमेरे बाद तू ज्यादा दिन नहीं जी सकेगा, यह मैं अभी से जान गया हूँ खुसरो, मुझे अपनी लम्बी उम्र की ख्वाहिश नहीं लेकिन मैं चाहता हूँ तू अभी और जिन्दा रह और अपनी शायरी से जहां महका
और हुआ भी यही, अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिलासमाचार क्या था खुसरो की दुनिया लुटने की खबर थीवे सन्नीपात की अवस्था में दिल्ली पहुँचे , धूल-धूसरित खानकाह के द्वार पर खडे हो गए और साहस न कर सके अपने पीर की मृत देह को देखने काआखिरकार जब उन्होंने शाम के ढलते समय पर उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सर पटक-पटक कर मूर्छित हो गएऔर उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला,
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस
।।
अपने प्रिय के वियोग में खुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंकेधन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे - कभी न उठने का दृढ निश्चय करकेऔर वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगेकुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर खुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिलेपीर की वसीयत के अनुसार अमीर खुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई
आज तक दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन की समाधि के पास बनी अमीर खुसरो की समाधि मौजूद हैहर बरस यहाँ उर्स मनाया जाता हैहर उर्स का आरंभ खुसरो के इसी अंतिम दोहे से किया जाता है - गोरी सोवे सेज पर
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैंहिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक खालिकबारी उपलब्ध हैइसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित है, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें और अनमेलियां हैंये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने खुसरो की हिन्दी कविता नामक छोटी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था
खुसरो के गीत
बहोत रही बाबुल घर दुल्हन, चल तोरे पी ने बुलाई
बहोत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई

बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई

चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहत और भाई

चले ही बनेगी होत क
हाँ है, नैनन नीर बहाई
अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन, काहू कि कछु न बने आई

मौज-खुसी सब देखत रह गए, मात पिता और भाई

मोरी कौन संग लगन धराई, धन-धन तेरि है खुदाई

बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही, नेह की मिसरी खिलाई

एक के नाम कर दीनी सजनी, पर घर की जो ठहराई

गुण नहीं एक औगुन बहोतेरे, कैसे नोशा रिझाई

खुसरो चले ससुरारी सजनी, संग कोई नहीं आई
यह सूफी कविता मृत्यु के बाद ईश्वर रूपी नौशे से मिलन के दर्शन को दर्शाती है
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया

पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

खुसरो निजाम के बल-बल जाइए
लाज राखी मेरे घूंघट पट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

इस कविता में त्यागमय जीवन की कठिनाईयों का उल्लेख हैइन कठिनाईयों से उबार इनके पीर निजाम ने ही उनकी लाज रख ली है

 - साईट हिंदीनेस्ट.कॉम से लिया गया

Wednesday 11 July 2012

संतकवि सूरदास

 

हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। उनका जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक ग़रीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे । सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे। सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं। आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षा दे कर कृष्णलीला  पद गाने का आदेश दिया। सूरदास जी अष्टछाप कवियों में एक थे। सूरदास जी की मृत्यु गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।


इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है। अकबर  बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा। सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है। किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे। उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं। उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे। कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे। सूरदास अब अंधों को कहते हैं। यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है। सूर का आशय ‘शूर’ से है। शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे। 


धर्म, साहित्य और संगीत के सन्दर्भ में महाकवि सूरदास का स्थान न केवल हिन्दी-भाषा क्षेत्र, बल्कि सम्पूर्ण भारत में मध्ययुग की महान विभूतियों में अग्रगण्य है। यह सूरदास की लोकप्रियता और महत्ता का ही प्रमाण है कि 'सूरदास' नाम किसी भी अन्धे भक्त गायक के लिए रूढ़ सा हो गया है। मध्ययुग में इस नाम के कई भक्त कवि और गायक हो गये हैं अपने विषय में मध्ययुग के ये भक्त कवि इतने उदासीन थे कि उनका जीवन-वृत्त निश्चित रूप से पुन: निर्मित करना असम्भवप्राय हैं परन्तु इतना कहा जा सकता है कि 'सूरसागर' के रचयिता सूरदास इस नाम के व्यक्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान थे और उन्हीं के कारण कदाचित यह नाम उपर्युक्त विशिष्ट अर्थ के द्योतक सामान्य अभिधान के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ये सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि थे और पुष्टिमार्ग में उनकी वाणी का आदर बहुत कुछ सिद्धान्त वाक्य के रूप में होता है।

वल्लभाचार्य

'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में सूर का जीवनवृत्त गऊघाट पर हुई वल्लभाचार्य से उनकी भंट के साथ प्रारम्भ होता है। गऊघाट पर भी उनके अनेक सेवक उनके साथ रहते थे तथा 'स्वामी' के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। कदाचित इसी कारण एक बार अरैल से जाते समय वल्लभाचार्य ने उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। 'वार्ता' में वल्लभाचार्य और सूरदास के प्रथम भेंट का जो रोचक वर्णन दिया गया है, उससे व्यंजित होता है कि सूरदास उस समय तक कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे और वे वैराग्य भावना से प्रेरित होकर पतितपावन हरि की दैन्यपूर्ण दास्यभाव की भक्ति में अनुरक्त थे और इसी भाव के विनयपूर्ण पद रच कर गाते थे। वल्लभाचार्य ने उनका 'धिधियाना' (दैन्य प्रकट करना) छुड़ाया और उन्हें भगवद्-लीला से परिचत कराया। इस विवरण के आधार पर कभी-कभी यह कहा जाता है कि सूरदास ने विनय के पदों की रचना वल्लभाचार्य से भेंट होने के पहले ही कर ली होगी परन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है * वल्लभाचार्य द्वारा 'श्रीमद् भागवत' में वर्णित कृष्ण की लीला का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सूरदास ने अपने पदों में उसका वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया। 'वार्ता' में कहा गया है कि उन्होंने 'भागवत' के द्वादश स्कन्धों पर पद-रचना की। उन्होंने 'सहस्त्रावधि' पद रचे, जो 'सागर' कहलाये। वल्लभाचार्य के संसर्ग से सूरदास को "माहात्म्यज्ञान पूर्वक प्रेम भक्ति" पूर्णरूप में सिद्ध हो गयी। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मन्दिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे।

अकबर

सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर देशाधिपति अकबर ने उनसे मिलने की इच्छा की। गोस्वामी हरिराय के अनुसार प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के माध्यम से अकबर और सूरदास की भेंट मथुरा में हुई। सूरदास का भक्तिपूर्ण पद-गान सुनकर अकबर बहुत प्रसन्न हुए किन्तु उन्होंने सूरदास से प्रार्थना की कि वे उनका यशगान करें परन्तु सूरदास ने 'नार्हिन रहयो मन में ठौर' से प्रारम्भ होने वाला पद गाकर यह सूचित कर दिया कि वे केवल कृष्ण के यश का वर्णन कर सकते है, किसी अन्य का नहीं। इसी प्रसंग मे 'वार्ता' में पहली बार बताया गया है। कि सूरदास अन्धे थे। उपर्युक्त पर के अन्त में 'सूर से दर्श को एक मरत लोचन प्यास' शब्द सुनकर अकबर ने पूछा कि तुम्हारे लोचन तो दिखाई नहीं देते, प्यासे कैसे मरते है।


वार्ता' में सूरदास के जीवन की किसी अन्य घटना का उल्लेख नहीं है, केवल इतना बताया गया है कि वे भगवद्भक्तों को अपने पदों के द्वारा भक्ति का भावपूर्ण सन्देश देते रहते थे। कभी-कभी वे श्रीनाथ जी के मन्दिर से नवनीतप्रिय जी के मन्दिर भी चले जाते थे किन्तु हरिराय ने कुछ अन्य चमत्कारपूर्ण रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है। जिनसे केवल यह प्रकट होता है कि सूरदास परम भगवदीय थे और उनके समसामयिक भक्त कुम्भनदास,परमानंददास आदि उनका बहुत आदर करते थे। 'वार्ता' में सूरदास के गोलोकवास का प्रसंग अत्यन्त रोचक है। श्रीनाथ जी की बहुत दिनों तक सेवा करने के उपरान्त जब सूरदास को ज्ञात हुआ कि भगवान की इच्छा उन्हें उठा लेने की है तो वे श्रीनाथ जी के मन्दिर में पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गये और दूर से सामने ही फहराने वाली श्रीनाथ जी की ध्वजा का ध्यान करने लगे।

शरीर त्याग

पारसौली वह स्थान है, जहाँ पर कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने रासलीला की थी। इस समय सूरदास को आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विठ्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को अनुपस्थित पाकर जान लिया कि सूरदास का अन्त समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि, "पुष्टिमार्ग का जहाज" जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले। आरती के उपरान्त गोसाई जी रामदास,कुम्भनदास,गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के निकट पहुँचे और सूरदास को, जो अचेत पड़े हुए थे, चैतन्य होते हुए देखा। सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की। चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया। सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है-जो भगवतयश है, वही आचार्य जी का भी यश है। गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने "भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो" वाला पद गाकर प्रकट किया। इसी पद में सूरदास ने अपने को "द्विविध आन्धरो" भी बताया। गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके 'चित्त की वृत्ति' और फिर 'नेत्र की वृत्ति' के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी' तथा 'खंजन नैन रूप रस माते' वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है। इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया। 


सूरदास की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना 'सूरसागर' हैं। एक प्रकार से 'सूरसागर' जैसा कि उसके नाम से सूचित होता है, उनकी सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन कहा जा सकता है* 'सूरसागर' के अतिरिक्त 'साहित्य लहरी' और 'सूरसागर सारावली' को भी कुछ विद्वान् उनकी प्रामाणिक रचनाएँ मानते हैं परन्तु इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है * । सूरदास के नाम से कुछ अन्य तथाकथित रचनाएँ भी प्रसिद्ध हुई हैं परन्तु वे या तो 'सूरसागर' के ही अंश हैं अथवा अन्य कवियों को रचनाएँ हैं। 'सूरसागर' के अध्ययन से विदित होता है कि कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन जिस रूप में हुआ है, उसे सहज ही खण्ड-काव्य जैसे स्वतन्त्र रूप में रचा हुआ भी माना जा सकता है। प्राय: ऐसी लीलाओं को पृथक् रूप में प्रसिद्धि भी मिल गयी है। इनमें से कुछ हस्तलिखित रूप में तथा कुछ मुद्रित रूप में प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए 'नागलीला' जिसमें कालियदमन   का वर्णन हुआ है, 'गोवर्धन लीला' जिसमें कालियदमन का वर्णन हुआ है, 'नागलीला', जिसमें गोवर्धनधारण और इन्द्र के शरणागमन का वर्णन है, 'प्राण प्यारी' जिसमें प्रेम के उच्चादर्श का पच्चीस दोहों में वर्णन हुआ है, मुद्रित रूप में प्राप्त हैं। हस्तलिखित रूप में 'व्याहलों' के नाम से राधा-कृष्ण विवाहसम्बन्धीप्रसंग, 'सूरसागर सार' नाम से रामकथा और रामभक्ति सम्बन्धी प्रसंग तथा 'सूरदास जी के दृष्टकूट' नाम से कूट-शैली के पद पृथक् ग्रन्थों में मिले हैं। इसके अतिरिक्त 'पद संग्रह', 'दशम स्कन्ध', 'भागवत', 'सूरसाठी' , 'सूरदास जी के पद' आदि नामों से 'सूरसागर' के पदों के विविध संग्रह पृथक् रूप में प्राप्त हुए है। ये सभी 'सूरसागर के' अंश हैं। वस्तुत: 'सूरसागर' के छोटे-बड़े हस्तलिखित रूपों के अतिरिक्त उनके प्रेमी भक्तजन समय-समय पर अपनी-अपनी रूचि के अनुसार 'सूरसागर' के अंशो को पृथक् रूप में लिखते-लिखाते रहे हैं। 'सूरसागर' का वैज्ञानिक रीति से सम्पादित प्रामाणिक संस्करण निकल जाने के बाद ही कहा जा सकता है कि उनके नाम से प्रचलित संग्रह और तथाकथित ग्रन्थ कहाँ तक प्रमाणित हैं।


सूरदास के काव्य से उनके बहुश्रुत, अनुभव सम्पन्न, विवेकशील और चिन्तनशील व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनका हृदय गोप बालकों की भाँति सरल और निष्पाप, ब्रज गोपियों की भाँति सहज संवेदनशील, प्रेम-प्रवण और माधुर्यपूर्ण तथा नन्द और यशोदा की भाँति सरल-विश्वासी, स्नेह-कातर और आत्म-बलिदान की भावना से अनुप्रमाणित था। साथ ही उनमें कृष्ण जैसी गम्भीरता और विदग्धता तथा राधा जैसी वचन-चातुरी और आत्मोत्सर्गपूर्ण प्रेम विवशता भी थी। काव्य में प्रयुक्त पात्रों के विविध भावों से पूर्ण चरित्रों का निर्माण करते हुए वस्तुत: उन्होंने अपने महान व्यक्तित्व की ही अभिव्यक्ति की है। उनकी प्रेम-भक्ति के सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भावों का चित्रण जिन आंख्य संचारी भावों , अनगिनत घटना-प्रसंगों बाह्य जगत् प्राकृतिक और सामाजिक-के अनन्त सौन्दर्य चित्रों के आश्रय से हुआ है, उनके अन्तराल में उनकी गम्भीर वैराग्य-वृत्ति तथा अत्यन्त दीनतापूर्ण आत्म निवेदात्मक भक्ति-भावना की अन्तर्धारा सतत प्रवहमान रही है परन्तु उनकी स्वाभाविक विनोदवृत्ति तथा हास्य प्रियता के कारण उनका वैराग्य और दैन्य उनके चित्तकी अधिक ग्लानियुक्त और मलिन नहीं बना सका। आत्म हीनता की चरम अनुभूति के बीच भी वे उल्लास व्यक्त कर सके। उनकी गोपियाँ विरह की हृदय विदारक वेदना को भी हास-परिहास के नीचे दबा सकीं। करुण और हास का जैसा एकरस रूप सूर के काव्य में मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूर ने मानवीय मनोभावों और चित्तवृत्तियों को, लगता है, नि:शेष कर दिया है। यह तो उनकी विशेषता है ही परन्तु उनकी सबसे बड़ी विशेषता कदाचित यह है कि मानवीय भावों को वे सहज रूप में उस स्तर पर उठा सके, जहाँ उनमें लोकोत्तरता का संकेत मिलते हुए भी उनकी स्वाभाविक रमणीयता अक्षुण्ण ही नहीं बनी रहती, बल्कि विलक्षण आनन्द की व्यंजना करती है। सूर का काव्य एक साथ ही लोक और परलोक को प्रतिबिम्बित करता है।  
सूर की रचना परिमाण और गुण दोनों में महान कवियों के बीच अतुलनीय है। आत्माभिव्यंजना के रूप में इतने विशाल काव्य का सर्जन सूर ही कर सकते थे क्योंकि उनके स्वात्ममुं सम्पूर्ण युग जीवन की आत्मा समाई हुई थी। उनके स्वानुभूतिमूलक गीतिपदों की शैली के कारण प्राय: यह समझ लिया गया हे कि वे अपने चारों ओर के सामाजिक जीवन के प्रति पूर्ण रूप में सजग नहीं थे परन्तु प्रचारित पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर यहदि देखा जाय तो स्वीकार किया जाएगा कि सूर के काव्य में युग जीवन की प्रबुद्ध आत्मा का जैसा स्पन्दन मिलता है, वैसा किसी दूसरे कवि में नहीं मिलेगा। यह अवश्य है कि उन्होंने उपदेश अधिक नहीं दिये, सिद्धान्तों का प्रतिपादन पण्डितों की भाषा में नहीं किया, व्यावहारिक अर्थात् सांसारिक जीवन के आदर्शों का प्रचार करने वाले सुधारक का बना नहीं धारण किया परन्तु मनुष्य की भावात्मक सत्ता का आदर्शीकृत रूप गढ़ने में उन्होंने जिस व्यवहार बुद्धि का प्रयोग किया है। उससे प्रमाणित होता है कि वे किसी मनीषी से पीछे नहीं थे। उनका प्रभाव सच्चे कान्ता सम्मित उपदेश की भाँति सीधे हृदय पर पड़ता है। वे निरे भक्त नहीं थे, सच्चे कवि थे-ऐसे द्रष्टा कवि, जो सौन्दर्य के ही माध्यम से सत्य का अन्वेषण कर उसे मूर्त रूप देने में समर्थ होते हैं।