Thursday 26 July 2012

अमीर खुसरो


 


खडी बोली हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो एक सूफीयाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थेइनका जन्म ईस्वी सन् 1253 में हुआ थाइनके जन्म से पूर्व इनके पिता तुर्क में लाचीन कबीले के सरदार थेमुगलों के जुल्म से घबरा कर इनके पिता अमीर सैफुद्दीन मुहम्मद हिन्दुस्तान भाग आए थे और उत्तरप्रदेश के ऐटा जिले के पटियाली नामक गांव में जा बसेइत्तफाकन इनका सम्पर्क सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के दरबार से हुआ, उनके साहस और सूझ-बूझ से ये सरदार बन गए और वहीं एक नवाब की बेटी से शादी हो गई और तीन बेटे पैदा हुए उनमें बीच वाले अबुल हसन ही अमीर खुसरो थेइनके पिता खुद तो खास पढे न थे पर उन्होंने इनमें ऐसा कुछ देखा कि इनके पढने का उम्दा इंतजाम कियाएक दिन वे इन्हें ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए जो कि उन दिनों के जाने माने सूफी संत थेतब इनके बालमन ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि वे यहाँ क्यों लाए गए हैं? तब पिता ने कहा कि तुम इनके मुरीद बनोगे और यहीं अपनी तालीम हासिल करोगे
उन्होंने पूछा -  मुरीद क्या होता है?

उत्तर मिला -  मुरीद होता है, इरादा करने वाला
ज्ञान प्राप्त करने का इरादा करने वाला
बालक अबुल हसन ने मना कर दिया कि उसे नहीं बनना किसीका मुरीद और वे दरवाजे पर ही बैठ गए, उनके पिता अन्दर चले गएबैठे-बैठे इन्होंने सोचा कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अगर ऐसे ही पहुँचे हुए हैं तो वे अन्दर
बैठे-बैठे ही मेरी बात समझ जाएंगे, जो मैं सोच रहा
हूँ।
और उन्होंने मन ही मन संत से पूछा कि  मैं अन्दर आऊं या बाहर से ही लौट जाऊं?
तभी अन्दर से औलिया का सेवक हाजिर हुआ और उसने इनसे कहा कि -
'ख्वाजा साहब ने कहलवाया है कि जो तुम अपने दिल में मुझसे पूछ रहे हो, वह मैं ने जान लिया है, और उसका जवाब यह है कि अगर तुम सच्चाई की खोज करने का इरादा लेकर आए हो तो अन्दर आ जाओ। लेकिन अगर तुम्हारे मन में सच्चाई की जानकारी हासिल करने की तमन्ना नहीं है तो जिस रास्ते से आए हो वापस चले जाओ।
फिर क्या था वे जा लिपटे अपने ख्वाजा के कदमों सेतब से इन पर काव्य और गीत-संगीत का नशा सा तारी हो गया और इन्होंने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया को अपना प्रिय मान अनेकों गज़लें और शेर कहेकई दरबारों में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाया और राज्य कवि बनेपर इनका मन तो ख्वाजा में रमता था और ये भटकते थे उस सत्य की खोज में जिसकी राह दिखाई थी ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने
एक बार की बात हैतब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थेतुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता थाखुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुजरती थीमगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिजाजबादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस दे दे कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड क़र चले जाएं
खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा?
'' कुछ नहीं खुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है।
सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गईरास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में ठहरा था, भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई
तभी से यह कहावत  अभी दिल्ली दूर है पहले खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई
छह वर्ष तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में भी रहे ये तब भी अलाउद्दीन खिलजी के करीब थे जब उसने चित्तौड ग़ढ क़े राजा रत्नसेन की पत्नी पद्मिनी को हासिल करने की ठान ली थीतब ये उसके दरबार के  खुसरु-ए-शायरा के खिताब से सुशोभित थेइन्होंने पद्मिनी को बल के जोर पर हासिल करने के प्रति अलाउद्दीन खिलजी का नजरिया बदलने की कोशिश की यह कह कर कि ऐसा करने से असली खुशी नहीं हासिल होगी, स्त्री हृदय पर शासन स्नेह से ही किया जा सकता है, वह सच्ची राजपूतानी जान दे देगी और आप उसे हासिल नहीं कर सकेंगेऔर अलाउद्दीन खिलजी ने खुसरो की बात मान ली कि हम युध्द से उसे पाने का इरादा तो तर्क करते हैं लेकिन जिसके हुस्न के चर्चे पूरे हिन्द में हैं, उसका दीदार तो करना ही चाहेंगे
तब स्वयं खुसरो पद्मिनी से मिलेशायर खुसरो के काव्य से परिचित पद्मिनी उनसे बिना परदे के मिलीं और उनका सम्मान कियारानी का हुस्न देख स्वयं खुसरो दंग रह गएफिर उन्होंने रानी को अलाउद्दीन खिलजी के बदले इरादे से वाकिफ कराया कि आप अगर युध्द टालना चाहें तो एक बार उन्हें स्वयं को देख भर लेने देंइस पर रानी का जवाब नकारात्मक था कि इससे भी उनकी आत्मा का अपमान होगाइस पर अनेकानेक तर्कों और राजपूतों की टूटती शक्ति और युध्द की संभावना के आपत्तिकाल में पडी रानी ने अप्रत्यक्षत: अपना चेहरा दर्पण के आगे ऐसे कोण पर बैठ कर अलाउद्दीन खिलजी को दिखाना मंजूर किया कि वह दूर दूसरे महल में बैठ कर मात्र प्रतिबिम्ब देख सकेकिन्तु कुछ समय बाद जब अलाउद्दीन खिलजी ने उनका अक्स आईने में देखा तो बस देखता ही रह गया, भूल गया अपने फैसले को, और पद्मिनी के हुस्न का जादू उसके सर चढ ग़या, इसी जुनून में वह उसे पाने के लिये बल प्रयोग कर बैठा और पद्मिनी ने उसके नापक इरादों को भांप उसके महल तक पहुँचने से पहले ही जौहर कर लिया था
इस घटना का गहरा असर अमीर खुसरो के मन पर पडाऔर वे हिन्द की संस्कृति से और अधिक जुड ग़एऔर उन्होंने माना कि अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना ही तो पहले हमें हिन्दवासियों के दिल में रहना होगा और इसके लिये पहली जरूरत है कि हम  हिन्दवी  सीखें  हिन्दवी  किसी तरह से अरबी-फारसी के मुकाबले कमतर नहींदिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली भाषा को ' हिन्दवी  नाम सबसे पहले खुसरो ने ही दिया थायही शब्द बाद में हिन्दी बना और यही तुर्की कवि हिन्दी का पहला कवि बना
ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया हर रोज ईशा की नमाज के बाद एकान्तसाधना में तल्लीन हो जाया करते थेऔर इस एकान्त में विघ्न डालने की अनुमति किसी शिष्य को न थी सिवाय खुसरो केऔलिया इन्हें जी जान से चाहते थेवे कहते - मैं और सब से ऊब सकता हूँ , हाँ तक कि अपने आप से भी उकता जाता हूँ कभी-कभी लेकिन खुसरो से नहीं उकता सकता कभीऔर यह भी कहा करते थे कि  तुम खुदा से दुआ मांगो कि मेरी उम्र लम्बी हो, क्योंकि मेरी जिंदगी से ही तेरी जिन्दगी जुडी हैमेरे बाद तू ज्यादा दिन नहीं जी सकेगा, यह मैं अभी से जान गया हूँ खुसरो, मुझे अपनी लम्बी उम्र की ख्वाहिश नहीं लेकिन मैं चाहता हूँ तू अभी और जिन्दा रह और अपनी शायरी से जहां महका
और हुआ भी यही, अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिलासमाचार क्या था खुसरो की दुनिया लुटने की खबर थीवे सन्नीपात की अवस्था में दिल्ली पहुँचे , धूल-धूसरित खानकाह के द्वार पर खडे हो गए और साहस न कर सके अपने पीर की मृत देह को देखने काआखिरकार जब उन्होंने शाम के ढलते समय पर उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सर पटक-पटक कर मूर्छित हो गएऔर उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला,
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस
।।
अपने प्रिय के वियोग में खुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंकेधन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे - कभी न उठने का दृढ निश्चय करकेऔर वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगेकुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर खुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिलेपीर की वसीयत के अनुसार अमीर खुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई
आज तक दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन की समाधि के पास बनी अमीर खुसरो की समाधि मौजूद हैहर बरस यहाँ उर्स मनाया जाता हैहर उर्स का आरंभ खुसरो के इसी अंतिम दोहे से किया जाता है - गोरी सोवे सेज पर
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैंहिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक खालिकबारी उपलब्ध हैइसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित है, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें और अनमेलियां हैंये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने खुसरो की हिन्दी कविता नामक छोटी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था
खुसरो के गीत
बहोत रही बाबुल घर दुल्हन, चल तोरे पी ने बुलाई
बहोत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई

बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई

चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहत और भाई

चले ही बनेगी होत क
हाँ है, नैनन नीर बहाई
अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन, काहू कि कछु न बने आई

मौज-खुसी सब देखत रह गए, मात पिता और भाई

मोरी कौन संग लगन धराई, धन-धन तेरि है खुदाई

बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही, नेह की मिसरी खिलाई

एक के नाम कर दीनी सजनी, पर घर की जो ठहराई

गुण नहीं एक औगुन बहोतेरे, कैसे नोशा रिझाई

खुसरो चले ससुरारी सजनी, संग कोई नहीं आई
यह सूफी कविता मृत्यु के बाद ईश्वर रूपी नौशे से मिलन के दर्शन को दर्शाती है
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया

पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

खुसरो निजाम के बल-बल जाइए
लाज राखी मेरे घूंघट पट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

इस कविता में त्यागमय जीवन की कठिनाईयों का उल्लेख हैइन कठिनाईयों से उबार इनके पीर निजाम ने ही उनकी लाज रख ली है

 - साईट हिंदीनेस्ट.कॉम से लिया गया